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BEZWADA WILSON : मेला धोने वालों के प्रति अमानवीय व्यवहार के ख़िलाफ़ लड़ने वाले व्यक्ति की कहानी

“काफिला भी तेरे पीछे होगा, तू अकेले चलना शुरू कर तो सही।”

SUCCESS STORY OF BEZWADA WILSON : हमारे देश को विविधताओं में एकता का देश कहा जाता है. ऐसा कहने के पीछे मुख्य वजह यह है कि यहाँ अलग-अलग तरह के लोग रहते है जो अलग-अलग भोजन पसंद करते हैं, इसके अलावा हमारे यहाँ बहुत सारी परम्पराओं को मानने वाले लोग हैं और ये अपनी आजीविका के लिए विभिन्न प्रकार के पेशे को अपनाते हैं.

इनमें से है दलित समाज इनका प्रमुख काम है मैला ढोने का काम. इन लोगों के बारे में अधिकांश लोगों का मानना हैं कि जो लोग यह काम को करते हैं वह उनकी ड्यूटी है और इनके इसी कार्य के लिए उन्हें हमारे समाज में दूसरे लोगों से हीन समझा जाता है और उनके साथ होने वाले जनवरो से भी बुरे बर्ताव को भी जायज़ भी समझा जाता है.

हमारी आज की कहानी के नायक हैं बेजवाड़ा विल्सन (BEZWADA WILSON) जिन्होंने दलित समाज के प्रति हो रहे इस अमानवीय व्यवहार के खिलाफ लड़ाई लड़ी. 2016 में उन्हें मैला ढोने की प्रथा के उन्मूलन के खिलाफ संघर्ष करने और उन्हें न्याय दिलाने के लिए किए गए प्रयासों के लिए प्रतिष्ठित रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से नवाज़ा गया.

BEZWADA WILSON का जन्म ओर संघर्ष

बेजवाड़ा विल्सन का जन्म 1966 में कर्नाटक के कोलार गोल्ड फ़ील्ड्स में काम करने वाले एक ईसाई दलित परिवार में हुआ था. बेजवाड़ा विल्सन के पिता वहां की टाउनशिप में एक सफाई कर्मचारी थे वे शुष्क शौचालय से लोगों का मैला उठाने का काम करते थे.

यह पुराने ज़माने का ऐसा टॉयलेट था जिसमें एक छोटा सा गड्ढा होता था, जहाँ पर पानी नहीं होता था और न ही किसी प्रकार का फ्लश सिस्टम होता था. ऐसे टॉयलेट की थोड़े-थोड़े समय में सफाई की जरुरत होती थी. इन टॉयलेट में मैला ढोने वाला समुदाय मानव मल एक झाड़ू से उठाता और उसके बाद एक एल्युमीनियम के बास्केट में रखता था.

ऐसा नही था की विल्सन के पिता दूसरा काम नही करना चाहते थे बल्कि उन्होने दूसरा काम ढूंढने की भरपूर कोशिश की परन्तु कोई भी एक नीच और अछूत जाती के व्यक्ति को नौकरी नहीं देता था. बेजवाड़ा विल्सन का जन्म उसी मैला ढोने वाले परिवार में हुआ था परन्तु उन्हें कई सालों तक अपने माता-पिता के रोजगार के बारे में अच्छे से जानकारी ही नहीं थी. एक दिन विल्सन वहां से गुजरे जहाँ पर कुछ लोग शुष्क शौचालय साफ कर रहे थे. यह देखकर उन्हें उन लोगों के प्रति घृणा सी हो गई.

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BEZWADA WILSON

जब अपने पिता के कार्य का पता चला

अपने घर जाकर जब उन्होंने यह सब अपने माता-पिता को बताया तब उन्होंने बेजवाड़ा विल्सन से कहा कि हम भी यही काम करते हैं. पिता की बातें सुनकर एक बार तो विल्सन को लगा कि वह तुरंत ही जाकर पानी की टंकी से कूदकर अपनी जान दे दे.

उन्होंने अपने पिता को इस काम छोड़ने के लिए बहुत बार समझाया. किंतु उनके पिता ने उनसे कहा की तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो. यह एक साधारण सी बात है और यह बहुत पहले से हमारे समाज में अस्तित्व में है.

अपने पिता की तरह ही विल्सन का बड़ा भाई भी भारतीय रेलवे में चार साल तक सफाई कर्मचारी का कार्य कर चुके थे और उसके बाद से पिछले दस सालों तक कोलार गोल्ड फ़ील्ड्स के टाउनशिप में वो भी यही काम कर रहे थे. बेजवाड़ा विल्सन पढ़ाई के लिए एक अनुसूचित जाति के बच्चों के हॉस्टल में रहते थे. वहां पर उन्हें दूसरे बच्चे हमेशा परेशान करते थे और उन्हें ‘थोटी’ नाम से चिढ़ाते थे जिसका मतलब होता है मैला ढोने वाला.

कुप्रथा को मिटाने के लिए लड़ाई लड़ने का संकल्प किया

बेजवाड़ा विल्सन को जब अपने पिता के रोज़गार के बारे में पता चला उस समय उनकी उम्र 18 वर्ष रही होगी. जब उन्हें अपने पिता के बारे में सब कुछ पता चला तो वे अपने आप को बहुत अधिक शर्मिंदा महसूस कर रहे थे और अपने आप को किसी भी तरह से मारने के बारे में सोच रहे थे.

अपने पिता के काम के बारे में पता चलने के बाद कुछ घंटे रोने और अपने मन में चल रहे विचारों के अंतर्द्वंद के बाद उन्होंने अपने मन में यह कठोर निश्चय किया कि वे इस सामाजिक अभिशाप के खिलाफ इसे बदलने के लिए लड़ाई लड़ेंगे.

भारत में मैला ढोने को 1993 में ही क़ानून द्वारा अवैध माना गया था परन्तु इन सबके बावजुद भी कुछ गरीब राज्य जैसे उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार में यह काम निरंतर चल रहा था. विल्सन जब चौथी कक्षा में पढ़ रहे थे तो वे मैला ढोने वालों के बच्चों के साथ ही पढ़ते थे. उस दौरान उनकी स्कूल में पढ़ने वाला हर बच्चा मैला ढोने वालों के परिवार से ही था.

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BEZWADA WILSON

नौकरी माँगने गए तो मेहतर की नौकरी की पेशकश की गई

अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद बेजवाड़ा विल्सन ने अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए नौकरी की तलाश करना शुरू किया. इस दौरान जब वे पहली बार अपने लिए नौकरी मांगने गए तब उन्हें वहाँ पर एक मेहतर की नौकरी के लिए पेशकश की गई उनके ऐसा करने के पीछे का कारण था उनका सरनेम और समुदाय जो की सफाई कर्मचारी से ताल्लुक रखता था.

नौकरी की तलाश के दौरान इस तरह से अपने सपनों और अपनी माँ की उम्मीदों के बिखर जाने से वे बहुत अधिक निराश हो गए. विल्सन ने उस नौकरी के ऑफ़र को ठुकरा दिया और अपने घर लौट आये. उस घटना के बाद उन्होंने समाज में चल रही इस कुप्रथा के ख़िलाफ़ धर्मयुद्ध छेड़ने का निश्चय किया. उन्होंने इस कुप्रथा के ख़िलाफ़ मुहिम चलाते हुए हर मैला ढोने वाले के घर जा-जाकर उनसे यह नौकरी छोड़ने के लिए समझाना शुरू कर दिया.

प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री को कुप्रथा ख़त्म करने के लिए लिखे ख़त

शुरुआत में बेजवाड़ा विल्सन ने मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री जी को अपने सर्वेक्षण की जानकारी के साथ फोटोग्राफ लगाकर खत भी लिखा. उनके इस कदम के कारण उस समय देश की संसद में कोलाहल मच गया. सरकार ने निर्णय लेते हुए शुष्क शौचालयों को समाप्त कर दिया गया और मैला ढोने वालों का पुनर्वास किया गया.

अपनी पहली सफलता के बाद विल्सन ने दूसरे राज्यों जैसे आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में भी अपना यह अभियान चलाया. अपने इस अभियान के दौरान उन्होंने भारतीय रेलवे के सफाई कर्मचारियों के लिए भी आवाज़ उठाई जिसमें सफाई कर्मचारी रेलवे ट्रैक पर से मानव मल उठाने के लिए मजबूर थे.

उनके द्वारा आवाज़ उठाने से हमारे समाज में बहुत बदलाव हुआ. इनके इस अभियान के दौरान अन्तरराष्ट्रीय मीडिया ने भी इनका साथ दिया और इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ आम जन-मानस में रोष पैदा करने में सफलता प्राप्त हुए.

बेजवाड़ा विल्सन का कार्य आज के युग में एक नए गाँधी की याद दिलाता है. सिर पर मैला ढोने वालों को इस हमारे देश में चले आ रहे इस कुप्रथा के दलदल से बाहर निकालने के लिए कई वर्षों तक संघर्ष करने वाले इस सामाजिक कार्यकर्ता की सोच को सलाम है.

ओर एक बात ओर आप इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों को शेयर करे ताकि लोग इससे प्रेरणा ले सके.

तो दोस्तों फिर मिलते है एक और ऐसे ही किसी प्रेणादायक शख्शियत की कहानी के साथ…

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