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RATILAL MAKWANA : सामाजिक तिरस्कार के बावजूद अपने दम पर 1000 करोड़ की कंपनी खड़ी की

“लिखने वाले अपनी तकदीर टूटी हुई कलम से भी लिख देते I”

SUCCESS STORY OF RATILAL MAKWANA : आज से कई सालो पहले तक हमारे देश का समाज जिस वर्ग के व्यक्तियों को निम्न ओर ह्रेय दृष्टि से देखा करता था, उन्हीं व्यक्तियों ने अपने संघर्ष ओर मेहनत के दम पर बदलते सामाजिक परिवेश में अपनी एक अलग पहचान बनाई. उन्होंने एक ऐसी पहचान बनाई जो वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रमुख स्तम्भ बन गई है.

उनके संघर्ष और सफलता की दास्ताँ हमारे देश की आने वाली कई पीढ़ियों का आने वाली कई सदियों तक मार्गदर्शन करेगी. आज हम एक ऐसे ही आकर्षक व्यक्तित्व के धनी से आपका परिचय करवा रहे हैं जिन्होंने आजादी से पहले के भारत को देखा है.

इन्होंने हमारे देश में प्रचलित जातिगत भेदभाव का दंश भी झेला है और उसके बावजूद वे आज अपनी मेहनत के दम पर भारत के शीर्ष उद्योगपतियों में प्रमुख स्थान रखते है. आज की सक्सेस स्टोरी में हम बात करने जा रहे हैं उद्योगपति रतिलाल मकवाना (RATILAL MAKWANA) की जो पेट्रोकेमिकल की ट्रेडिंग करने वाली प्रमुख कंपनी “गुजरात पिकर्स इंडस्ट्रीज” के चेयरमैन हैं।

फर्श से अर्श तक का सफर कैसे कैसे तय किया जाता है इस बात का जीता जागता उदाहरण 70 वर्षीय रतिलाल मकवाना के रूप में आज की युवा पीढ़ी के सामने है. उनकी कंपनी गुजरात पिकर्स आई.ओ.सी और गेल इंडिया की प्रमुख डिस्ट्रीब्यूटर है. उनकी एक और कंपनी है रेनबो पैकेजिंग.

रतिलाल मकवाना की दोनों कंपनियों को अगर मिला दिया जाए तो उनका सालाना टर्नओवर 450 करोड़ रुपये से ज्यादा है. वर्तमान में रतिलाल मकवाना एक हज़ार करोड़ रुपये के कारोबारी साम्राज्य के मालिक हैं. रतिलाल मकवाना की गिनती आज देश के सबसे बड़े उद्योगपतियों में से एक के रूप में होती हैं. जातिगत भेदभाव का दंश झेल चुके रतिलाल मकवना को यह सफलता बहुत संघर्षों के बाद हासिल हुई है.

RATILAL MAKWANA का जन्म ओर बचपन का सफ़र

रतिलाल मकवाना का जन्म गुजरात के भावनगर के एक दलित परिवार में आजादी से पहले 1943 में हुआ. उनका बचपन मूलभूत सुविधाओं के अभाव और देश की जातिगत भेदभाव की कुप्रथा के बीच बीता क्योंकि उस समय में जातिगत भेदभाव अपने चरम पर था. रतिलाल मकवना मंदिर से लेकर स्कूल और बाजार हर जगत भेदभाव की मार को झेलते हुए बड़े हुए. उस समय देश में गरीबी, छुआ-छूत और जातिगत भेदभाव ने उनके कोमल मन पर बहुत गहरा प्रभाव डाला.

रतिलाल मकवाना ने अपने पिता और दादा से विरासत में मिली हिम्मत और कारोबारी सूझ–बूझ के दम पर हर चुनौती का डटकर सामना किया. रतिलाल मकवाना के दादा पहले ऐसे व्यक्ति बने जिन्होंने अपने परिवार में कारोबार करने की शुरुआत की थी. उनके दादा से पहले उनके घर में किसी ने भी कारोबार नहीं किया था. अपने पिता की कारोबार में सहायता करने के लिए रतिलाल मकवना को अपनी स्कूल की शिक्षा बीच में ही छोड़नी पड़ी.

रतिलाल मकवाना के पिता गालाभाई ने उस समय पिकर्स व्यवसाय की नींव डाली थी. इनके पिताजी इस तरह के व्यवसाय की दुनिया में किस्मत आजमाने वाले अपने परिवार के पहले व्यक्ति थे. स्थानीय शासक कृष्ण कुमार सिंह द्वारा भेंट किए गए जमीन के एक टुकड़े पर चमड़े का कारखाना स्थापित करने से पहले गालाभाई और उनके भाई भावनगर में ही स्थित एक मलिन बस्ती के पास चारा बेचने का काम करते थे.

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RATILAL MAKWANA

दूसरे विश्वयुद्ध में बड़ी चमड़े की माँग

उस समय अचानक से द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत हो गई ओर इस कारण से चमड़े की मांग में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई और गालाभाई ने भी इस अवसर का लाभ लिया ओर जमकर कमाई की लेकिन युद्ध ने कपड़ा मिलों पर बिल्कुल विपरीत प्रभाव डाला और लूमों में इस्तेमाल होने वाले चमड़े के काटन पिकर्स की मांग घट गई इसके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी.

परिवार में बँटवारा होने के बाद रतिलाल के पिता अकेले पड़ गये. ऐसी स्थिति में रतिलाल ने अपने पारिवारिक व्यवसाय में पिता का सहयोग करने के उद्देश्य से प्रवेश किया. वे उत्पादन के काम की देखभाल करते थे ओर उनके पिता देश भर में घूमकर उत्पाद की मार्केटिंग करते. सबसे बड़ी बात यह है कि रतिलाल के पिता पिकर बनाने के लिए इस्तेमाल में लाये जाने वाले तेल और चमड़े का आयात उस समय विदेश से करते थे. पिकर बनाने में एक ख़ास तौर की व्हेल मछली के तेल का इस्तेमाल होता था और रतिलाल के पिता ये तेल इंग्लैंड और नॉर्वे जैसे देशों से मंगवाते थे.

इस दौरान उनके व्यवसाय में भी कई उतार चढ़ाव आए ओर धीरे-धीरे उनका कारोबार पटरी पर आने लगा द्वितीय विश्व युद्ध के कारण से भारत में पिकर आना बंद हो गया ओर रतिलाल के पिता को इसका कारोबार शुरू करने और उसका विस्तार करने का बड़ा मौका मिल गया था. उस समय भावनगर के राजा की मदद से उनकी पिकर की फैक्ट्री शुरू हुई और उनका कारोबार चल पड़ा. उनका यह काम कई सालों तक काफी अच्छा चला.

ऑटोमैटिक पिकमशीन की ख़रीद

उस समय अपनी फैक्ट्री में रतिलाल के पिता अपने हाथ से पिकर की मशीन चलाते थे. वे यह चाहते थे कि एक ऑटोमैटिक मशीन खरीदें ताकि उनका काम आसान हो सके. कारोबार को नए पंख देने के लिये उस समय एक ऑटोमैटिक मशीन की बहुत ज़्यादा आवश्यकता थी. उन्होंने इसके लिए स्टेट बैंक आफ सौराष्ट्र में कर्जे के लिए अप्लाई किया क्योंकि वे पिकर बनाने की एक स्वचलित मशीन स्विट्जरलैंड से आयात करना चाहते थे.

लेकिन बैंक के नागर ब्राह्मण अधिकारियों ने उनका आवेदन यह बोलकर नामंजूर कर दिया की ‘‘चमड़ा’’ शब्द अपनी फाईलों में लिखना वहाँ के अधिकारियों को ठीक नहीं लगा था. आज़ादी मिलने और संविधान अमल में आने के बावजूद देश में काम करने वाले लोगों की मानसिक आज़ादी कोसों दूर थी.

लेकिन तभी किस्मत से एक दिन तत्कालीन वाणिज्य मंत्री टी.टी. कृष्णामाचारी भावनगर आए और उन्होंने इस दौरान शहर के अग्रणी व्यवसायियों से मिलने की इच्छा प्रगट की तो उस बैठक में रतिलाल को भी बुलाया गया और उन्होंने अपनी समस्या कृष्णामाचारी को बताई. कृष्णामाचारी भी ब्राह्मण थे किंतु उन्होंने रतिलाल की जाति नहीं बल्कि उनकी व्यवसायिक प्रतिभा को देखते हुए जिला कलेक्टर को निर्देश दिया कि वे बैंक के अधिकारियों को बताये कि चमड़ा दरअसल काला सोना है.

कृष्णामाचारी की फटकार के बाद रतिलाल को कर्ज मिला और इस प्रकार स्विट्जरलैंड से स्वचलित मशीन भावनगर आ गई. रतिलाल ने जब अपने व्यवसाय को अकेले पूरी तरह सम्भाला तब तक बाजार में प्लास्टिक के पिकर आने लगे थे और इस कारण से चमड़े के पिकर की मांग घट गई थी.

लेकिन रतिलाल मकवाना ने विरासत में पिता से मिली व्यावसायिक के आधार पर चतुराई का इस्तेमाल करना सिख लिया था. वे वक्त से पहले ही यह बात भांप लेते थे कि आने वाले समय में क्या परिवर्तन आने वाला है.

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RATILAL MAKWANA

अख़बार के देखा IPCL का सरकारी विज्ञापन

उसी समय एक दिन रतिलाल मकवाना ने एक अखबार में इंडियन पेट्रो केमिकल्स कार्पोरेशन लिमिटेड (IPCL) नाम की सरकारी कंपनी का विज्ञापन देखा. आईपीसीएल को लो–डेनसिटी पाली इथिलीन (एलडीपीई) के लिए कुछ वितरक चाहिए थे. रतिलाल को अख़बार के इस विज्ञापन में एक नया अवसर नज़र आ गया लेकिन दो साल तक कई राजनेताओं के दरवाजे खटखटाने के बाद अंततः साल 1980 में उन्हें यह काम मिला.

भावनगर में बहुत बड़ा प्लास्टिक उद्योग था परंतु सभी निर्माता हाई–डेनसिटी पालि इथिलीन (HDPE) का इस्तेमाल करते थे. प्लास्टिक निर्माताओं को इस नए कच्चे माल का इस्तेमाल करने के लिए राजी करने में सबसे बड़ी बाधा रतिलाल की जाति थी. रतिलाल मकवना दलित थे सिर्फ़ इसलिए अधिकांश कारखाना मालिकों ने उनका बहिष्कार करने का मन बना लिया था.

परंतु यह भी एक संयोग था की उनमें से कुछ कारखानों में काम करने वाले अधिकांश मजदूर दलित थे इस कारण से उन कारखाने के मालिक को यह डर था कि इस तरह का भेदभाव करने पर उनके यहाँ काम कर रहे मजदूर उनके कारख़ाने को छोड़कर चले जाएंगे इसलिए रतिलाल के वितरक के तौर पर नियुक्ति के पहले ही दिन उन्हें उनसे LDPE खरीदनी पड़ी.

धीरे–धीरे अन्य निर्माता भी रतिलाल मकवाना से कच्चा माल खरीदने लगे. इसी के साथ लगभग दो दशकों तक रतिलाल का व्यवसाय जमकर तरक़्क़ी के पथ पर बढ़ने लगा और वे व्यवसाय के क्षेत्र में नित नए कीर्तिमान स्थापित करने लगे. अपनी मेहनत और प्रतिभा के दम पर उन्होंने हजारों लोगों को रोजगार दिया उनमे से अधिकांश दलित थे जो उनकी तरह ही सामजिक भेदभाव का शिकार थे.

शुगर का नया बिजनेस शुरू किया

साल 2002 में सरकार ने IPCL का एक हिस्सा रिलायंस समूह को बेच दिया और नये प्रबंधन ने रतिलाल से डिस्ट्रीब्यूटरशिप वापस ले ली. इसके बावजूद उन्होंने अपनी कोशिश नही छोड़ी और पेट्रोकेमिकल आयात के व्यवसाय से जुड़ने का प्रयास किया परंतु इस बार उन्हें सफलता नहीं मिली. इसके बाद निरंतर प्रयासों के फल स्वरूप रतिलाल मकवाना को गैल और इंडियन आयल की डिस्ट्रीब्यूटरशिप मिल गई.

आज अपने प्रयासों के कारण रतिलाल ने भारत की सामजिक आर्थिक सोच में प्रभावशाली परिवर्तन किया है, अपने तेज़ दिमाग ओर व्यावसायिक सूझबुझ के दम पर रतिलाल ने चमड़े के अपने पुश्तैनी कारोबार को नई ऊँचाईयों पर पहुँचाया और उसी के साथ कई समस्याओं के बाद 2007 से रतिलाल ने देश से बाहर कदम रखते हुए अफ्रीका में भी अपना शुगर का नया कारोबार सफलतापूर्वक शुरू किया. वर्तमान समय में वे बड़े पैमाने पर अपने उस बिजनेस का विस्तार भी कर रहे हैं.

रतिलाल मकवाना ने इस बात को साबित किया कि कोई कारोबार सामान के आधार पर अच्छा या बुरा नहीं होता और ना ही कोई कारोबारी जाति के आधार पर बड़ा या छोटा. रतिलाल मकवना अपने हार न मानने के ज़ज्बे और व्यवसायिक खूबियों की वजह से निरंतर कामयाबी की राह पर बढ़ते चले गए और एक नायाब कहानी के महानायक नायक बने.

रतिलाल देश के उन चंद दलित उद्यमियों में से हैं जिनके जीवन और संघर्ष की कहानियां ‘‘डिफाईंग द आड्स: द राईज आफ दलित आंत्रेप्रेन्योरस’’ (रेंडम हाउस) में संकलित है. आज उनके चारों बेटे कारोबार को उनके साथ मिलकर आगे बढ़ा रहे हैं.

ओर एक बात ओर आप इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों को शेयर करे ताकि लोग इससे प्रेरणा ले सके.

तो दोस्तों फिर मिलते है एक और ऐसे ही किसी प्रेणादायक शख्शियत की कहानी के साथ…

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