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MOHAN SINGH OBEROI : माँ के दिए 25 रुपये से अपनी मेहनत के दम पर खड़ा किया 7000 करोड़ का साम्राज्य

“सौभाग्य भी उसी को मिलता है, जिसने अपने आप को उस काबिल बनाया है।”

MOHAN SINGH OBEROI SUCCESS STORY : आज की सक्सेस स्टोरी में हम जिस व्यक्तित्व के बारे में बात करने जा रहे हैं वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं. वे अपनी मेहनत के दम पर सफलता की बुलंदियों को हासिल करने वाले, विपरीत परिस्थितियों में भी कभी भी हार ना मानने वाले, ओर वर्तमान समय में होटल व्यवसाय के क्षेत्र में देश के जाने माने औद्योगिक घराने ओबरॉय ग्रुप के संस्थापक और वर्तमान चेयरमैन मोहन सिंह ओबरॉय (MOHAN SINGH OBEROI) आज किसी भी प्रकार के परिचय के मोहताज नहीं हैं. आपको यह बात जानकर और भी अधिक आश्चर्य होगा कि इस प्रसिद्ध औद्योगिक घराने की नींव रखने वाले ओबरॉय ने अपना करियर सिर्फ़ 50 रुपये की मामूली सी पगार से शुरू किया था.

MOHAN SINGH OBEROI का जन्म ओर बचपन का संघर्ष

मोहन सिंह ओबरॉय का जन्म वर्तमान समय के पाकिस्तान के झेलम जिले के भनाउ गाँव में एक सिख परिवार में हुआ था. मोहन सिंह ओबरॉय परिवार एक बेहद ही गरीब परिवार था. उनकी ज़िंदगी की परीक्षा उनके जन्म लेने के साथ में ही शुरू हो गई थी. जन्म के 6 महीने के भीतर ही उनके सर से उनके पिता का साया उठ गया और उनके पूरे परिवार की जिम्मेदारी उनकी माँ के कंधे पर आ गई.

मोहन सिंह ओबरॉय की माँ ने बहुत संघर्ष करते हुए किसी तरह से उन्हें पाला ओर परिस्थितियों से लड़ते हुए मोहन सिंह ओबरॉय ने किसी तरह से अपनी प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव भनाउ से पूरी की और उसके बाद आगे की शिक्षा के लिए उन्होंने रावलपिंडी का रुख किया. रावलपिंडी में पहुँचकर किसी तरह उन्होंने सरकारी कॉलेज से अपनी पढ़ाई पूरी की और उसके बाद रोजगार के अवसर तलाश में इधर से उधर भटकने लगे किंतु हर तरफ़ से उन्हें निराशा ही हाथ लगी.

इस निराशा ने उन्हें यह सोचने पर विवश कर दिया कि

“केवल शिक्षा प्राप्त कर लेने पर भी कोई व्यक्ति रोजगार के योग्य नहीं बन जाता है”

मोहन सिंह ओबरॉय ने रोज़गार की तलाश मे काफी वक़्त और धन खर्च कर दिया किंतु इसके बावजूद भी जब उन्हें कोई रोजगार नहीं मिला तो उन्होंने अपने एक मित्र के सुझाव पर अमृतसर आकर टाइपिंग का कोर्स शुरू कर दिया. लेकिन टाइपिंग का कोर्स शुरू करने के कुछ समय बाद ही उन्हें यह ज्ञात हो गया कि इस क्षेत्र में भी उनके लिए किसी प्रकार के रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं है.

हर तरह से रोज़गार के लिए प्रयत्न करने के बावजूद कोई नौकरी नही मिलने से हताश होकर उन्होंने पुनः अपने गाँव की और लौटने का निश्चय किया क्योंकि उस समय भी बड़े शहर में रहना गाँव से कही अधिक खर्चीला था.

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MOHAN SINGH OBEROI

चाचा ने दिलाया जुते के कारख़ाने में काम

गाँव लौटने के कुछ समय बाद ही उनके चाचा ने उन्हें लाहौर में एक जूते बनाने वाले कारखाने में जूतों को बनाने और बेचने का काम दिलवा दिया. परन्तु वहाँ पर भी बुरे समय ने मोहन का पीछा नही छोड़ा था. आप इसे उनकी बदक़िस्मती कहे या फिर समय की करामात कहे, कुछ ही समय में वह जूतों का कारखाना भी बन्द हो गया.

कारख़ाना बंद होने से निराश होकर उन्हें एक बार फिर से अपने गांव की ओर ही रुख करना पड़ा. गाँव लौटने पर सामाजिक दबाव के कारण उनका विवाह उन्हीं के गाँव के कलकत्ता में बसे एक परिवार में करा दिया गया.

मोहन सिंह ओबरॉय अपनी शादी के बारे में मझाक के अन्दाज़ में कहते हैं “उस समय मेरे पास ना धन था ना ही कोई नौकरी और ना ही मेरे अधिक मित्र थे लगता था शायद मेरे ससुर जी को केवल मेरा आकर्षक व्यक्तित्व ही भा गया था.”

विवाह के बाद उनका अधिकतर समय अपने ससुराल सर्गोंधा में बीतने लगा कुछ समय अपने ससुराल में बिताने के बाद जब वे फिर से अपने गाँव लौटे तो उन्हें पता लगा कि पूरे गाँव में प्लेग की महामारी फ़ैल रही है. इस महामारी के आरन गाँव के कई लोगों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ गया था. उस समय मोहन सिंह को उनकी माँ ने सख्त आदेश दिया कि उन्हें पुनः अपने ससुराल सर्गोंधा लौट जाना चाहिए और वहीं पर रहकर कुछ काम करना चाहिए.

अपनी माँ द्वारा दिए गए इस आदेश से तनाव और अवसाद की उस विकट स्थिति में मोहन सिंह ओबरॉय स्वयं को अपने जीवन में पहली बार हारा हुआ महसूस कर रहे थे, अंत में उन्होंने अपनी माँ की बात मानते हुए अनिश्चित भविष्य की तलाश में सर्गोंधा लौटने का निर्णय लिया.

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MOHAN SINGH OBEROI

अख़बार में दिए विज्ञापन से पहुँचे शिमला

अपने जीवन की उस समय की निराशा भरी परिस्तिथियों को याद करते हुए मोहन सिंह ओबेरॉय कहते हैं कि “एक दिन दैनिक अखबार के एक विज्ञापन पर अचनाक से मेरी नज़र पड़ी तो मैंने उसमें देखा कि एक सरकारी महकमे में जूनियर क्लर्क की सीट रिक्त है बस फिर क्या था में तुरंत ही माँ के दिए 25 रुपये जेब में लेकर शिमला के लिए निकल पड़ा क्लर्क की परीक्षा में बिना किसी पूर्व तैयारी के भाग्य आजमाने के लिए.“

शिमला पहुँचने पर मेरी नज़र टहलते हुए वहाँ की कई खूबसूरत सरकारी इमारतों पर पड़ी जो कि उस समय में अंग्रेजी हुकूमत का परिदृश्य बयां कर रही थी. शिमला उस समय देश की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी इसलिए वह समय सभी उच्च पदाधिकारियों के आगमन का भी समय था.

कुछ समय तक वे शिमला में ही घूमे ओर इस दौरान वहाँ पर घूमते-घूमते एक दिन अचानक से उनकी नज़र शिमला में भारत के प्रतिष्टित होटलों में से एक सिसिल पर गई यह होटेल अपनी सुविधाओं और अपने उच्चस्तर के लिए प्रसिद्ध था.

मोहन सिंह ओबरॉय इस बारे में कहते हैं “उस समय असमंजस की स्थिति में मैंने संकोच के साथ उस होटल में कदम रखा और सीधे होटल के मैनेजर से मिला जो कि एक कुशल व्यक्ति लग रहे थे. मैंने इस दौरान बहुत ही कठिनायों को पार करते हुए वहां दाखिल हुआ था इसलिए मैंने मैनेजर से किसी प्रकार की घुमाफिराकर बात करने की बजाय नौकरी के लिए सीधे पूछना ही उचित समझा और वह समय मेरी ज़िंदगी का टर्निंग पोईँट था. यहाँ से ही मेरी किस्मत ने एक सकारात्मक मोड़ लिया था“

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शिमला में मिली बिलिंग क्लर्क की नौकरी

होटल के मैनेजर डी.वी. जॉर्ज ने मुझे बिलिंग क्लर्क के पद पर 40 रुपये महीने की तनख्वाह पर रखा और कुछ समय पश्चात ही मेरी तनख्वाह को बढ़ा कर 50 रुपये महीना कर दिया गया. कुछ ही समय में मोहन सिंह के द्वारा उनसे निवेदन पर उन्हें एक आवासीय घर भी मिल गया, जहाँ पर उन्होंने अपनी पत्नी के साथ रहने का निश्चय किया. होटल में नौकरी करने के बाद होटल के प्रबंधन में बदलाव हुआ ओर उन्हें उनके स्टेनोग्राफी के ज्ञान के कारण कैशियर तथा स्टेनोग्राफर दोनों का पदभार मिल गया.

कभी रुपयों के अभाव में नंगे पाँव जेब में 25 रुपये लेकर मार्मिक परिस्थितियों में शिमला की और निकालने वाले मोहन सिंह ओबरॉय के लिए यह पदोन्नति उनकी सोच से अधिक ख़ुशी देने वाली थी. उन्होंने उस समय अपनी कड़ी मेहनत के दम पर ब्रिटिश हुक्मरानों के दिलों में अपने लिए एक खास जगह बना ली. इस दौरान समय तेज गति से गुजरता गया और कुछ वक्त बाद ही सिसिल होटल के मैनेजर क्लार्क ने मोहन सिंह ओबेरॉय को महज 25,000 रुपये में होटल बेचने का प्रस्ताव रखा, मोहन सिंह इस प्रस्ताव से बहुत खुश हुए.

उन्होंने क्लार्क से 25,000 रुपये की राशि का प्रबंध करने के लिए कुछ समय की माँग की. इसी के साथ वे होटेल को ख़रीदने के लिए राशि जुटाने के लिए अपने गाँव गए ओर वहाँ उन्हें पैतृक संपत्ति तथा पत्नी के जेवरात तक गिरवी रखने पड़े और उन्होंने पांच साल की अल्प अवधि में ही सारी राशि होटल मालिक को लौटा दी. इसी के साथ 14 अगस्त 1934 को होटल सिसिल पर मोहन सिंह का मालिकाना हक़ हो गया.

मोहन सिंह ओबेरॉय ने उसके बाद भी कड़ी मेहनत से कभी भी अपना मन नही चुराया. यही कारण था कि होटल व्यवसाय के क्षेत्र में उनका नाम बीतते समय के साथ निरंतर बुलंदियों को छुता रहा. साल 1934 में महज 25,000 रुपये में मोहन सिंह ओबरॉय ने ओबेरॉय ग्रुप की स्थापना की, जिसमें 30 होटल और पांच बहुसुविधा सम्पन्न होटल शामिल थे, उनके यह होटल आज विश्व के 6 देशों में अपनी अलग पहचान रखते हैं.

मोहन सिंह ओबरॉय ने ज़मीन से लेकर आसमान तक का सफर केवल अपने दम पर अकेले तय किया है. होटल इंडस्ट्रीज में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखवाने वाले मोहन सिंह ओबरॉय की जीवन यात्रा एक छोटे से गाँव से प्रारम्भ होकर आज वैश्विक पटल पर शान के साथ अपना परचम लहरा रही है. इनकी सफलता उन तमाम लोगों के लिए एक प्रेरणास्रोत है जो विपरीत परिस्थितियों के सामने घुटने टेकते हुए हार मान लेते है.

ओर एक बात ओर आप इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों को शेयर करे ताकि लोग इससे प्रेरणा ले सके. 

तो दोस्तों फिर मिलते है एक और ऐसे ही किसी प्रेणादायक शख्शियत की कहानी के साथ

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